सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद अरावली पर संकट: दिल्ली-एनसीआर के पर्यावरण और भविष्य पर बड़ा खतरा
अरावली पर्वतमाला के भविष्य को लेकर 20 नवंबर 2025 को आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद संकट और गहरा गया है। पर्यावरण विशेषज्ञों का मानना है कि इस फैसले से अरावली का लगभग 91.3 प्रतिशत पहाड़ी क्षेत्र कानूनी संरक्षण से बाहर हो सकता है। यह केवल पहाड़ों की परिभाषा में बदलाव नहीं है, बल्कि इसके दूरगामी प्रभाव दिल्ली-एनसीआर की वायु गुणवत्ता, जल संसाधनों और जलवायु संतुलन पर पड़ सकते हैं।
पर्यावरण विशेषज्ञ संजय मिश्रा के अनुसार, अरावली थार मरुस्थल और दिल्ली के बीच एक प्राकृतिक दीवार की तरह काम करती है। यदि अरावली का बड़ा हिस्सा नष्ट होता है, तो थार की रेत और धूल बिना किसी रुकावट के दिल्ली-एनसीआर तक पहुंचेगी। इसका सीधा असर पहले से ही खराब वायु गुणवत्ता सूचकांक (AQI) पर पड़ेगा, जिससे सांस से जुड़ी बीमारियों का खतरा और बढ़ जाएगा। उन्होंने बताया कि अरावली में पहले ही कई जगह ब्रेकेज हो चुके हैं, जहां से धूल दिल्ली में प्रवेश कर रही है।
जल संकट के संदर्भ में अरावली की भूमिका और भी महत्वपूर्ण है। एक हेक्टेयर अरावली क्षेत्र सालाना लगभग 20 लाख लीटर पानी को रिचार्ज करने की क्षमता रखता है। ऐसे में पहाड़ियों का विनाश दिल्ली-एनसीआर के भूजल स्तर को और नीचे ले जाएगा। विशेषज्ञों का कहना है कि नई परिभाषा के तहत कम ऊंचाई वाली पहाड़ियां कानूनी सुरक्षा से बाहर हो जाएंगी, जिससे खनन और निर्माण गतिविधियां तेजी से बढ़ सकती हैं।
अरावली पर्वतमाला लगभग 692 किलोमीटर लंबी है, जो गुजरात से दिल्ली तक फैली हुई है और राजस्थान, हरियाणा व दिल्ली से होकर गुजरती है। यह पर्वत श्रृंखला दक्षिण-पश्चिम मानसून को प्रभावित करती है, पूर्वी राजस्थान में वर्षा लाने में मदद करती है और पश्चिम से आने वाली रेतीली आंधियों को रोकती है। अरावली को तीन भागों में बांटा जाता है—दक्षिणी अरावली (450 मीटर तक), मध्य अरावली (500 से 700 मीटर) और उत्तरी अरावली, जो दिल्ली के आसपास कम ऊंचाई वाली है।
दिल्ली में अरावली का उत्तरी विस्तार दिल्ली रिज के रूप में जाना जाता है, जिसे राजधानी के ‘ग्रीन लंग्स’ कहा जाता है। यह रिज तुगलकाबाद से शुरू होकर असोला-भट्टी वन्यजीव अभयारण्य, वसंत कुंज, जेएनयू, महरौली, धौला कुआं, सदर बाजार होते हुए वजीराबाद तक फैली हुई है। करीब 35 किलोमीटर लंबी और 8,000 हेक्टेयर क्षेत्र में फैली दिल्ली रिज राजधानी की जैव विविधता का आधार है और पीएम 2.5 जैसे हानिकारक कणों को अवशोषित कर प्रदूषण को कम करने में अहम भूमिका निभाती है।
20 नवंबर 2025 को सुप्रीम कोर्ट द्वारा पर्यावरण मंत्रालय की समिति की सिफारिशों को स्वीकार करते हुए अरावली की नई परिभाषा तय की गई। इसके तहत अब केवल वही भू-आकृतियां अरावली मानी जाएंगी, जो आसपास की जमीन से 100 मीटर या उससे अधिक ऊंची हों। पहले फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया (FSI) 3 डिग्री ढलान के आधार पर अरावली की पहचान करता था। विशेषज्ञों का कहना है कि ऊंचाई आधारित यह परिभाषा खनन माफिया के लिए रास्ता खोल सकती है।
एफएसआई की एक आंतरिक रिपोर्ट के अनुसार, राजस्थान के 15 जिलों में 20 मीटर से ऊंची 12,081 पहाड़ियों में से केवल 1,048 पहाड़ियां ही 100 मीटर से अधिक ऊंची हैं। यानी लगभग 90 प्रतिशत क्षेत्र संरक्षण से बाहर हो सकता है। इससे बड़े पैमाने पर खनन और निर्माण गतिविधियों की आशंका बढ़ गई है। हालांकि कोर्ट ने नई खनन लीज पर रोक लगाई है, लेकिन मौजूदा परियोजनाओं को जारी रखने और ‘सस्टेनेबल माइनिंग’ की योजना बनाने की अनुमति दी गई है।
अरावली पर्वतमाला दुनिया की सबसे प्राचीन पर्वत श्रृंखलाओं में से एक है, जिसका निर्माण लगभग 2.5 अरब से 541 मिलियन वर्ष पूर्व हुआ था। यह न केवल भूवैज्ञानिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है, बल्कि इसमें रणथंबौर और सरिस्का जैसे टाइगर रिजर्व भी स्थित हैं, जो जैव विविधता के हॉटस्पॉट हैं। इसके अलावा, दिलवाड़ा जैन मंदिर, अंबाजी मंदिर और माउंट आबू जैसे धार्मिक स्थल अरावली के सांस्कृतिक महत्व को भी दर्शाते हैं।
फैसले के बाद सोशल मीडिया पर #SaveAravalli और #सेवअरावली जैसे अभियान तेजी से वायरल हो रहे हैं। सामाजिक कार्यकर्ताओं और पर्यावरणविदों का कहना है कि अरावली को केवल तकनीकी मापदंडों से नहीं, बल्कि उसके पर्यावरणीय और सामाजिक महत्व के आधार पर संरक्षित किया जाना चाहिए। विशेषज्ञ चेतावनी दे रहे हैं कि अगर पूरी पर्वत श्रृंखला को संरक्षित नहीं किया गया, तो दिल्ली-एनसीआर की जलवायु, स्वास्थ्य और जीवन की गुणवत्ता पर स्थायी और अपूरणीय प्रभाव पड़ सकता है।
Watch Video
Watch the full video for more details on this story.











