उत्तराखंड की सृष्टि की फिल्म एक था गांव को मिली इंडिया गोल्ड श्रेणी में जगह | Nation One

देहरादूनः उत्तऱाखंड में प्रतिभाओं की कमी नहीं है, चाहे वह कोई भी क्षेत्र हो उसमें वह अपना मुकाम हासिल कर रहे हैं. इन्हीं में से एक नाम है सृष्टि लखेड़ा जो कि, उत्तराखंड के टिहरी जिले के सेमला गांव की रहने वाली है. गांव के जीवन पर आधारित उन्होंने एक फिल्म बनाई है, ‘एक था गांव’ (वंस अपॉन ए विलेज), जिसने मुंबई एकेडमी ऑफ मूविंग इमेज (मामी) फिल्म महोत्सव के इंडिया गोल्ड श्रेणी में जगह बनाई है.

यह फिल्म गढ़वाली और हिंदी भाषा में बनी है. इस फिल्म में घोस्ट विलेज (पलायन से खाली हो चुके) की कहानी है. सृष्टि की फिल्म का मुकाबला विभिन्न भाषाओं की चार फिल्मों के साथ है. पहले मुंबई फिल्म महोत्सव का आयोजन इसी महीने होना था लेकिन, कोविड संकट के चलते इसका आयोजन अगले साल होगा.

मूल रूप से विकास खंड कीर्तिनगर के सेमला गांव की रहने वाली सृष्टि का परिवार ऋषिकेश में रहता है. वह पिछले 10 सालों से फिल्म लाइन के क्षेत्र में हैं. उत्तराखंड में पलायन की पीड़ा को देखते हुए सृष्टि ने पावती शिवापालन के साथ (सह निर्माता) फिल्म बनाने का निर्णय लिया. इसके लिए उन्होंने अपने गांव का चयन किया. सृष्टि बताती है कि पहले उनके गांव में 40 परिवार रहते थे और अब पांच से सात लोग ही बचे हैं. गांव वालों को किसी न किसी मजबूरी से गांव छोड़ना पड़ा है. इसी उलझन को उन्होंने एक घंटे की फिल्म के रूप में पेश किया है.

फिल्म में 80 और 19 साल के दो पात्र
हालांकि गांव का जीवन बहुत कठिन है. एक था गांव फिल्म के दो मुख्य पात्र हैं. 80 वर्षीय लीला देवी और 19 वर्षीय किशोरी गोलू. फिल्म की कहानी भी इन दोनों के ईर्द गिर्द घूमती रहती है. लीला गांव में अकेली रहती है. इकलौती बेटी की शादी हो चुकी है. बेटी साथ में देहरादून चलने के लिए जिद करती है लेकिन, लीला हर बार मना कर देती है. वह गांव नहीं छोड़ना चाहती है क्योंकि, उसे गांव का जीवन अच्छा लगता है. वहीं दूसरी पात्र गोलू को गांव के जीवन में भविष्य नहीं दिखता है.

वह भी अन्य लड़कियों की तरह अपने पैरों पर खड़ा होना चाहती है. एक दिन ऐसी परिस्थिति आती है, कि दोनों को गांव छोड़ना पड़ता है. लीला देवी अपनी बेटी के पास देहरादून चली जाती है जबकि, गोलू उच्च शिक्षा के लिए ऋषिकेश चली जाती है. फिल्म के माध्यम से बताया गया कि अपनी जन्मभूमि को छोड़ने का कोई न कोई कारण होता है लेकिन, गांव छोड़ने के बाद भी लोगों के मन में गांव लौटने की कश्मकश चलती रहती है.

हर व्यक्ति बने बातचीत का हिस्सा
फिल्म के बारे में सृष्टि का कहना है कि, भारत और दुनिया भर के लोगों से मिले अपार समर्थन के साथ, हमने इस कहानी को दूर-दूर तक फैलाने के दृढ़ संकल्प को ही प्रभावित किया है. अब हम इस कहानी को फुर्सत के कोने तक पहुँचाने के लिए धन जुटाने की कोशिश कर रहे हैं ताकि हर व्यक्ति बातचीत का हिस्सा बने. फिल्म की नींव एक जांच पर आधारित है. प्रवास, परित्याग और परिवारों के मुद्दों पर सामूहिक उत्तर की तलाश जो प्रियजनों के अलगाव की वास्तविकता से ग्रस्त हैं.

यह फिल्म एक निजी स्थान से शुरू हुई थी, पिछले बीस वर्षों में मेरे पैतृक गाँव को सुनसान देखकर, सदियों से पहाड़ों पर भाषा, संस्कृति, लोग और आक्रमण और समय व मौसम के मार्ग देखे गए हैं.

आपको बता दें, सृष्टि ने हाल ही में इश्क दोस्ती और ऑल दैट पीएसबीटी के लिए निर्मित फिल्म के लिए कैमरे का सह-निर्देशन किया है. उसने बेहरूपिया के दूसरे प्रोजेक्ट पर एक DOP के रूप में काम किया है और चैनल न्यूज़ एशिया के लिए एक फिल्म का निर्माण किया है. उन्होंने वाशिंगटन के एवरग्रीन स्टेट कॉलेज में फिल्म निर्माण का अध्ययन किया. वह एनजीओ जैसे फेमिनिस्ट एप्रोच टू टेक्नोलॉजी और निरंतार से जुड़ी रही हैं, जहां उन्होंने हाशिए के समुदायों के लिए फिल्म मेकिंग कार्यशालाएं आयोजित की हैं.