ये जिंदगी कब होगी आसान
- इनके पास न आर्थिक और न ही सामाजिक सुरक्षा
कब मिलेगा इन सवालों का जवाब
रोजाना अपने घर से दफ्तर आने के दौरान आर्थिक रूप से मजबूत होते बाजार और लोगों को देखने के साथ इस तबके पर भी ध्यान जाता है। इन सब बातों को समझने की कोशिश करता हूं और सोने से पहले इस पर कुछ देर सोचता हूं और फिर अपने ही ख्वाबों में खो जाता हूं। अन्य दिन भी ऐेसे ही देखते, सोचते, समझते और ख्वाब पालते हुए खत्म हो रहे हैं। वो दिन कब आएगा, जब मैं इस पर कुछ करूंगा या इसको अपने ही स्तर पर निपटाने की स्थिति में आ जाऊंगा। मेरे इन सवालों का जवाब कब मिलेगा।कूड़े के ढेर के पास से निकलना किसी को पसंद नहीं होगा। अगर मजबूरी है तो नाक को रूमाल से दबाकर रास्ता पार करना पड़ता है। घर का कूड़ा फेंकने के बाद लोग उसकी ओर देखना पसंद नहीं करते, लेकिन इनके लिए कूड़े का ढेर रोजी रोटी का जरिया है। महिलाएं और बच्चे तक रोजाना सुबह नगर निगम की कूड़ा गाड़ी का इंतजार करते हैं। क्योंकि इसमें कूड़़े के साथ प्लास्टिक और वो सामान मिल जाता है जो रिसाइकल होने के लिए कबाड़खानों में बिकता है और बाकी हिस्से की जैविक खाद बनती है।
ये कब जाएंगे स्कूल
धूप हो या छांव। कूड़ेदानों, सड़कों और नालियों में कुछ टटोलते ये बच्चे औऱ महिलाएं हर शहर और कस्बे में दिख जाएंगे। शायद ही इनमें से अधिकतर बच्चों ने कभी स्कूलों की ओर रुख किया हो। इनकी जिंदगी तो बस कबाड़ की उस पोटली में बसती है, जो इनके कंधों को दिन दर दिन झुकाती है। इनमें बेटियां भी हैं, जिनकी समृद्धि के लिए कुछ ब़ड़ा करने का राग हर सरकार अलाप रही है।
इनको मुख्यधारा से जोड़ना जरूरी
भीख मांगना अपराध है और सामाजिक रूप से इसको मान्यता नहीं दी जानी चाहिए। क्या यह बात इन बच्चों को मालूम है,शायद नहीं। चौराहों और क्रासिंग के पास हाथ फैलाते बच्चे । कभी फटकार और कभी दुलार। यह बात सही है कि ये बच्चा अपना भला और बुरा नहीं समझते। इनको जैसा करने के लिए कहा जाता है,ये वैसा कर रहे हैं। इनसे ये काम कौन और क्यों करा रहा है, इसका जवाब तलाशने के लिए सरकार और उसके सिस्टम के पास वक्त कहां है। मेरा यह सवाल मुझे ही बेचैन करता है, लेकिन इसे दोहराने से गुरेज नहीं करूंगा। क्या ये बच्चे देश की मुख्यधारा से जुड़ सकेंगे या नहीं। या फिर अपराध से जुड़कर अपना और समाज का अहित करने में जुट जाएंगे।