
लड़ाई में कहीं नहीं हैं आचार्य, पूनम का पलड़ा है भारी,बहुत मुश्किल है राजनाथ के लिए इस बार सीट बचाना
लड़ाई में कहीं नहीं हैं आचार्य, पूनम का पलड़ा है भारी,
बहुत मुश्किल है राजनाथ के लिए इस बार सीट बचाना
लखनऊ:(अश्वनी कुमार श्रीवास्तव) सपा-बसपा गठबंधन की तरफ से पूनम सिन्हा के नामांकन के बाद अब लखनऊ में चुनावी लड़ाई मजेदार और खासी रोमांचक भी हो गयी है। क्योंकि अब राजनाथ सिंह के लिए 1991 यानी 28 साल से लहरा रहे भाजपा के परचम को इसी तरह बनाये रखने का जो जिम्मा है, वह पूनम सिन्हा के आने से काफी मुश्किल नजर आने लगा है। वैसे तो कांग्रेस और उसके समर्थक आचार्य प्रमोद कृष्णन को भी लड़ाई में बता रहे हैं मगर आचार्य का इतिहास खुद कांग्रेसी दावों की खिल्ली उड़ाता दिख रहा है।
क्योंकि जिस जगह यानी संभल का मठाधीश मानकर उन्हें लखनऊ लाया गया है, वह वहां ही 2014 में कांग्रेस के टिकट से चुनाव लड़कर महज 16 हजार वोट पाए थे और पांचवें स्थान पर रहे थे। उन्हें कुल मत का महज डेढ़ प्रतिशत ही मिल सका था। अब जो मठाधीश अपने ही मठ में चुनाव में इतनी बुरी तरह से पराजित हो चुका हो , उसे सैकड़ों किलोमीटर दूर लखनऊ में लाकर यहां का मठाधीश बनाने का दावा कितना दमखम रखता है, यह तो वही कांग्रेसी रणनीतिकार ही बता सकते हैं, जो उन्हें यहां लाये हैं।
बहरहाल, मेरा यही मानना है कि आचार्य लड़ाई में हैं ही नहीं और बमुश्किल 25 से 50 हजार वोट अगर पा जाएं तो गनीमत ही समझिए। इसका सीधा सा अर्थ यही है कि लखनऊ के लगभग 20 लाख मतदाताओं में से 50 से 55 प्रतिशत यानी लगभग 10 लाख मतदाता इन दोनों उम्मीदवारों के बीच अपने अपने उम्मीदवार चुनेंगे। पिछली बार 2014 में जब रीता बहुगुणा जोशी ने कांग्रेस के पर्चे पर राजनाथ सिंह को यहां से चुनौती दी थी तो कांग्रेस ने इसलिए उन पर दांव लगाया था क्योंकि वोटर्स का गणित यह कहता था कि महिला, ब्राह्मण, पहाड़ी और मुस्लिम मतदाता उन्हें ही वोट करेगा।
लेकिन नतीजा आया तो पता चला कि जोशी को कुल 2 लाख 87 हजार मत मिले, जो कि सारी गणित के बावजूद राजनाथ सिंह के 5 लाख 61 हजार मतों से आधे के करीब थे। उधर सपा से अभिषेक मिश्र ने 56 हजार व बसपा से नकुल दुबे ने 64 हजार मत पाकर यह साबित कर दिया था कि जोशी, मिश्र और दुबे के मत मिलाकर भी अपने सिंह साहब लगभग डेढ़ लाख मतों से आगे ही थे।
लोग इसी कारण यह सोचकर बैठे हैं कि कांग्रेस अगर प्रमोद कृष्णन को न भी उतारती तो पूनम सिन्हा तो तब भी राजनाथ सिंह से जीत नहीं सकती हैं। क्योंकि सपा, बसपा और कांग्रेस तीनों के वोट मिलाकर भी डेढ़ लाख का अंतर तो रह ही जायेगा। लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं है। जैसा कि मैंने बताया कि आचार्य तो लड़ाई में हैं ही नहीं और केवल 25 -50 हजार ही वोट काटने की हैसियत रखते हैं। फिर भी मैं यही मानता हूँ कि यह भी बिल्कुल सच है कि अगर प्रमोद कृष्णन मैदान में न होते तो राजनाथ सिंह का हारना लगभग तय था। लेकिन आचार्य के मैदान में रहने पर भी तो मतदाता का गणित पूनम सिन्हा के हक में ही जा रहा है।
वह कैसे, इसे समझने के लिए हमें साल 2014 में जाना होगा, जब मोदी की प्रचंड लहर थी, जो कि इस बार नहीं है। साल 2014 में सपा और बसपा को वोट देने वाली कई पिछड़ी और दलित जातियां कट्टर हिंदुत्व की मोदी लहर में भाजपाई हो गईं थीं, जो इस बार शर्तिया तौर पर सपा-बसपा गठबंधन में वापस आने वाली हैं।
यानी सपा और बसपा के वोट में कम से कम एक लाख का इजाफा तो संयुक्त तौर पर होगा ही। और वही वोट कटकर राजनाथ के कुल वोटों में भी एक से डेढ़ लाख की गिरावट दर्ज करेगा। उसके बाद पांच साल सरकार चलाने के बाद उपजी नाराजगी यानी एन्टी इनकंबेंसी भी कम नहीं है इस बार, जो नोटा या वोट देने न जाने या फिर सपा/ बसपा अथवा कांग्रेस के हिस्से जाएगी। वह प्रतिशत भी राजनाथ के हिस्से के वोट ही घटाएगा।
फिर आता है मुस्लिम वोट, जो मूलतः गठबंधन, कांग्रेस और शिवपाल द्वारा खड़े किये गए एक अन्य मजबूत शिया उम्मीदवार के बीच बंटेगा तो सही मगर अधिकतर हिस्से पर इस बार गठबंधन का ही कब्जा होने वाला है। यानी गठबंधन की उम्मीदवार के पक्ष में इस बार वोट लगातार बढ़ते दिख रहे हैं और राजनाथ के पास से घटते। यही नहीं, राजनाथ को सबसे गहरी चोट पहुंचाने वाला है उनका कोर वोट बैंक यानी 4 लाख कायस्थ वोट तथा डेढ़ लाख से ज्यादा सिंधी वोट।
पूनम सिन्हा मूलतः सिंधी ही हैं इसलिए जब वह स्वयं अपनी मातृभाषा में सिंधियों से वोट देने की अपील करेंगी तो प्रान्तीय व भाषाई प्रेम एक बार फिर जाग उठेगा और सिंधी वोट का एक बड़ा हिस्सा या पूरा ही पूनम सिन्हा के हक में आ जायेगा।
रही बात कायस्थ मतदाताओं की तो साल 1991 से ही शत्रुघ्न सिन्हा ने लखनऊ की कायस्थ महासभा के जरिये अपनी पैठ सीधे तौर पर यहां के कायस्थ मतदाताओं में बहुत अच्छी तरह से बना रखी है। उन्हें पता है कि कायस्थ मतदाता सबसे पढ़ा लिखा वर्ग है, जो सड़कों पर आकर अपना समर्थन या विरोध नहीं करता। लेकिन बिरादरी के नाम पर और शत्रुघ्न सिन्हा जैसे प्रसिद्ध कायस्थ के नाम पर वह बड़ी तादाद में चुपचाप पूनम सिन्हा को वोट देकर चला आएगा। ऐसी सूरत में अगर यह मान लें कि शत्रुघ्न सिन्हा के प्रभाव में आकर लखनऊ के एक डेढ़ लाख कायस्थ मत पूनम सिन्हा को मिल गए तो राजनाथ सिंह सिर्फ हारेंगे ही नहीं बल्कि शर्मनाक हार भी हारेंगे।
कुल मिलाकर लखनऊ का मतदाता समीकरण साफ कह रहा है कि राजनाथ के लिए संसद पहुंचना अब बहुत मुश्किल है। भाजपा 28 साल से कब्जाए अपने किले को ढहता हुआ देखकर फिर यह मानने को मजबूर ही हो जाएगी कि …
जली को आग कहते हैं , बुझी को राख कहते हैं
जिस राख से बारूद बने, उसे विश्वनाथ कहते हैं।