- अनिता मैठाणी
कुसुमा जब उमस से भरी दुपहरी
में काम करके थक जाती।
दूर गाँव के छोर पर बने पोखर पर
जो हमेशा उसकी बाट जोहता
थकान लेकर पहुँच जाती।

पोखर भी अपना समस्त माधुर्य
जल में घोल देता अपनी प्रियतमा को
आनन्दित करने को, आह्लादित करने को।
वह हर बार की तरह
पोखर को मन ही मन नमन करती
फिर अपने पैर के अंगूठे से
जल को ठेलती अठखेली करती
पोखर को निहारती, ललचाती धीरे-धीरे आगे बढ़ती ।
कुसुमा के जल में समाने के साथ ही
पोखर भी हल्के हिचकोले के साथ
उससे दूर छिटकता फिर
उतनी ही तेजी से उछलकर
उसके माथे को चूम लेता।
पानी में उतरते ही कुसुमा की
उतरने लगती थकान
तन-मन के सारे घाव
पोखर को बेझिझक दिखाती
जल क्रीड़ा में उतार फेंकती सारे दर्द।
पोखर और कुसुमा का
ये अनूठा प्रेम कुछ देर अनवरत चलता…
मानो ये आज थमेगा नहीं।

पोखर के हरसु सारा समां
प्रेम की अनुभूति से महकने लगता।
पोखर को सहसा कुसुमा के लिए
पुरूष होने का गुमान होने लगता
कभी वो सोचता;
कोई देव आसमान से अभी उतरे
और उससे कहे कि- हे पोखर! मैं तुमसे प्रसन्न हूँ!
मैं तुम्हें शापमुक्त करता हूँ
तुम एक राजकुमार हो।
तो वो, उसी क्षण अपनी कुसुमा को
साथ ले चला जाता दूर अपने देश।
जहाँ हर रोज उसे
कुसुमा से बिछुड़ने का दर्द नहीं
झेलना पड़ता और कुसुमा को
उसे रोज जाते नहीं देखना पड़ता।
वो चला जाता दूर
बहुत दूर कुसुमा को ले
उसके समस्त कष्टों से दूर, बहुत दूर।
तभी सहसा पोखर को कुछ ख्याल आता
वो अचानक से ठहर जाता, उसका यूं ठहरना देख
कुसुमा पोखर का इशारा समझ जाती;
और जितने धीरे से प्रवेश करती
उतने ही धीरे से वो पोखर से बाहर आती।
एक ओर से अपने अंग से चिपकी
अपनी धोती को निचोड़ती जाती
और दूसरी ओर से लपेटती जाती।
पोखर भौंचक्क सा उसके आधे-अधूरे
ख़्वाब, घाव-मरहम के बारे में सोचता
कल तक के विरह को पुनः झेलता।
आज इंतज़ार की घड़ी
ख़त्म होने को नहीं आ रही थी
जाने क्या बात थी,
अब पोखर से रहा नहीं जा रहा था
वो हर आते-जाते को घूर रहा था।
अब नहीं और नहीं
सांझ हो चली थी।
दूर पहाड़ी पर थोड़ा बचा सूरज
छिपना चाह रहा था ।
ये क्या आज कुसुमा पोखर से मिलने नहीं आयी,
ऐसा पिछले कई सालों में नहीं हुआ था।
फिर आज, आज क्या हुआ।
तभी पोखर ने सुना
कोई कह रहा था
बेचारी ने आखिर कुंए में कूद कर जान दे दी।
नहीं-नहीं ये कुसुमा नहीं हो सकती,
इसके आगे पोखर सुन नहीं पाया।
उस दिन के बाद कुसुम कभी नहीं आई
वो इंतज़ार करता रहा
उसे याद करके दिन रात आँसू बहाता रहा।
दिन-रात बहे आंसुओं से
अब तक तो पोखर को
अपनी घेरे से बाहर आ जाना था
पर; सबने देखा पोखर सिमट रहा था ।
कुसुमा के ना रहने पर,
पोखर ने भी जैसे ना रहने की ठान ली।
पोखर धीरे-धीरे घटने लगा
घटते-घटते बहुत सूख गया।
और कहते हैं कुछ साल और गुजरे
एक दिन पोखर भी नहीं रहा।
बस रह गयी कुसुमा और पोखर की कहानी।