अयोध्या राम मंदिर – बाबरी मस्जिद विवाद की पूरी जानकारी…

सुबह हर रोज होती है सूरज हर रोज उगता है और हवाएं भी वैसे ही चलती है। पर 6 दिसम्बर 1992 की सुबह अलग मिजाज लिए हुए थी। हवा में जरा ज्यादा ही खुश्की थी।

बात कर रहे हैं अयोध्या की सुबह की, जो शायद सारे हिंदुस्तान की सुबह को बहुत दिनों के लिए अलग बना देने वाली थी।

6 दिसंबर को उत्तर प्रदेश और हिंदुस्तान की सियासत बहुत दिनों के लिए बदलने वाली थी। उस एक सुबह से उस दिन के बाद उत्तर प्रदेश समेत कई राज्यों की सरकारों का सूर्य अस्त हो गया।

सीनियर जर्नलिस्ट वीएन दास बताते हैं कि विहिप के आह्वान पर 6 दिसंबर को देशभर से लाखों कारसेवक आए थे। कारसेवा के दिन सुबह विहिप के संतों की सभा शुरू हुई, जिसमें भाजपा के कई दिग्गज नेता भी मौजूद थे।

यहां मंदिर शिलान्यास के चबूतरे पर आगे के निर्माण को लेकर कारसेवा करने रामभक्त आए थे। विवादित स्थल के सामने मानस भवन की आखिरी मंजिल के छत पर देश भर से आए पत्रकारों को समाचार कवर करने की व्यवस्था विहिप ने की थी।

लेकिन कारसेवा की जगह जब शिलान्यास के चबूतरे की केवल धुलाई-सफाई करने का ऐलान किया गया तो कारसेवक नाराज हो गए।

और इतिहास गवाह है की नाराज भीड़ जब बेकाबू होती है तो क्या होता है और वही इतिहास दोहराया गया और एक जत्था बैरीकेडिंग को तोड़ कर आगे बढ़ गया।

जय श्रीराम के नारे लगाता हुआ विवादित ढांचे पर चढ़ कर उसे तोड़ने लगा। थोड़ी ही देर तीनों गुंबदों का काफी हिस्सा कारसेवकों ने ढहा दिया और नेता लोग मंच से चिल्लाते रह गए।

कोई किसी कि सुनने वाला नहीं था। उस भीड़ को बस कुछ पंक्तियाँ सुनाई दे रहीं थी की “राम लला हम आएंगे मंदिर वहीं बनाएंगे और साथ ही जय श्री राम का उद्घोष”

5 दिसम्बर की शाम को ही अयोध्या में तैयारियां होने लगीं थीं। सुबह होते ही कुछ कारसेवक आक्रामक होने लगे। उनकी जिद थी कि हम कारसेवा करेंगे।कार सेवा यानि कि मस्जिद ध्वंस और मंदिर का शिलान्यास।

फिलहाल यह पूरा अभियान विहिप और अशोक सिंघल के कंट्रोल में था। अशोक सिंघल लगातार अपील कर रहे थे कि नीचे आ जाइए नहीं तो चोट लग जाएगी, लेकिन कारसेवक उनकी सुनने को तैयार नहीं थे।

उनके हाथों में फावड़ा और कुदाल थे, जो उन्हें किसी ने दिए नहीं थे। वे काफी समय से इन्हें अपने पास एकत्र किए थे। विवादित ढांचे के पास ही दस या साढ़े दस बजे कारसेवकों का एक जत्था बैरियर की तरफ बढ़ा और पुलिस के साथ छीना झपटी करने लगा।

उग्र भीड़ ने बैरियर को तोड़ दिया और तेजी से आगे बढ़ गई। लोग गुबंद पर चढ़कर तोड़-फोड़ करने लगे और जैसा की तमाम फोटोज में देखा जा सकता है की इसके बाद शुरू हो गयी कारसेवा।

राजनैतिक लिहाज से यह मुद्दा बड़ा कमाऊ पूत साबित हुआ और लालकृष्ण आडवाणी राममंदिर आंदोलन का सबसे बड़ा चेहरा थे।

इसी मुद्दे की बुनियाद पर 1989 के लोकसभा चुनाव में 9 साल पुरानी बीजेपी 2 सीटों से बढ़कर 85 पर पहुंच गई थी। और आगे की राजनीती का भी अहम् मुद्दा रहा।

उस समय में भीड़ इतनी हिंसक हो चुकी थी कि किसी के नियंत्रण में नहीं रह पा रही थी। उस दौरान बाबरी विध्वंस के बाद हुए दंगों में 1200 लोग मारे गए थे।

कहा जाता है कि विवादित ढांचे को ढहाने के लिए न सिर्फ कार्यकर्ता बल्कि इमारत ढहाने वाले पेशेवर भी शामिल हुए थे।

साल के कैलेण्डर में शायद ऐसी कोई तारीख न हो जिसके नाम मानवता के विरुद्ध कोई इल्जाम न हो। किन्तु ये तारीख अलग मायने समेटे हुए है। जिसके अर्थों में तमाम अनर्थ सिमटे हुए हैं।

फिलहाल एक लम्बी कानूनी प्रक्रिया के बाद आखिरकार 9 नवंबर 2019 को सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में वो 2 एकड़ जमीन उनके कानूनी मालिकों यानि हिन्दू पक्ष, यानि वहाँ पर मस्जिद की जगह भव्य राम मंदिर बनाने का निर्णय 1000 पन्नों के निर्णय में सुनाया और उम्मीद करते हैं की इसके बाद किसी 6 दिसंबर को ऐसी कारसेवा न हो जो मानवता की सेवक न हो।