अपनी ही अदालत में मुकदमा हारते खड़े अटल | Nation One
लखनऊ से वरिष्ठ पत्रकार दयानंद पांडेय
मेरे प्रभु !
मुझे इतनी ऊंचाई कभी मत देना
गैरों को गले न लगा सकूं
इतनी रुखाई
कभी मत देना।
और ऐसा भी नहीं है कि यह बात वह सिर्फ़ अपनी कविता में ही कहते हैं। उन को ऐसा जीवन में भी करते मैं ने ही नहीं, सब ने बारंबार देखा है। कि समय, समाज और सत्ता ने जो ऊंचाई उन्हें बार-बार दी, बावजूद उस के वह सब को गले भी बार-बार लगाते रहे और रुखाई तो जैसे उन की डिक्शनरी में कभी किसी ने देखी ही नहीं।
भाजपा, जनसंघ या आर.एस.एस. से जिस के मतभेद रहे हैं या हैं उन से भी अटल जी के मतभेद नहीं रहे। विरोधी भी जब-जब अटल जी के विरोध की बात आई तो सिर्फ़ यह कह कर कतरा गए कि एक सही आदमी, गलत पार्टी में है। चंद्रशेखर और नरसिंहा राव जैसे लोग तमाम-तमाम मतभेदों के बावजूद जब अटल जी की बात आती तो उन्हें गुरुदेव कह कर नत हो जाते थे। बहुत कम लोग हुए हैं भारतीय राजनीति में जिन्हें जनसभा हो या लोकसभा हर कहीं पिनड्राप साइलेंस यानी नि:शब्द हो कर सुना जाए, अटल बिहारी वाजपेयी उन गिनती के लोगों में शुमार होते हैं।
न सिर्फ़ भाषणों में बल्कि व्यक्तिगत बातचीत में भी उन्हें सुनना एक अनुभव से गुज़रना होता था एक समय। अब तो वह बीमारी और बुजुर्गी के चलते लगभग निर्वासन भुगत रहे हैं पर जब एक बार बतौर प्रधानमंत्री लखनऊ आए तो मैं ने पूछा, ‘अब क्या फ़र्क पाते हैं?’
‘फ़र्क?’ कह कर उन्हों ने आदत के मुताबिक एक लंबा पाज़ लिया। फिर जैसे उन के चेहरे पर एक तल्खी आई और बोले, ‘लोगों से कट गया हूं। पहले लोगों के साथ चलता था, अब अकेले चलता हूं।’ कह कर वह एक फीकी मुस्कान फेंक कर रह गए। अब जब वह स्वास्थ्य कारणों से ज़्यादा किसी से मिलते-जुलते नहीं, दिनचर्या भी उन की लगभग डाक्टरों और परिवारीजनों के बीच की बात हो चली है।
अब वह ज़्यादा बोल नहीं पाते, सुन नहीं पाते, पहचान नहीं पाते आदि-इत्यादि खबरें जब-तब मिलती रहती हैं तो जान-सुन कर तकलीफ़ होती है। लेकिन उन का सार्वजनिक जीवन जितना चमकीला और निरापद रहा है उस से बड़े-बड़ों को रश्क हो सकता है। लेकिन राजनीति भी उन का प्रथम प्यार नहीं रही। एक समय वह खुद कहते रहे हैं कि राजनीति ने उन के कवि को भ्रष्ट कर दिया।
राजनीति और पत्रकारिता दोनों ही ने उन के कवि को नष्ट किया ऐसा वह बार-बार मानते रहे हैं। राजनीति की रपटीली राह शीर्षक लेख में उन्हों ने खुद लिखा है, ‘ मेरी सबसे बड़ी भूल है राजनीति में आना। इच्छा थी कि कुछ पठन-पाठन करुंगा। अध्ययन और अध्यवसाय की पारिवारिक परंपरा को आगे बढ़ाऊंगा।
अतीत से कुछ लूंगा और भविष्य को कुछ दे जाऊंगा, किंतु राजनीति की रपटीली राह में कमाना तो दूर रहा, गांठ की पूंजी भी गंवा बैठा। मन की शांति मर गई। संतोष समाप्त हो गया। एक विचित्र-सा खोखलापन जीवन में भर गया। ममता और करुणा के मानवीय मूल्य मुंह चुराने लगे हैं। क्षणिक स्थाई बनता जा रहा है। जड़ता को स्थायित्व मान कर चलने की प्रवृत्ति पनप रही है।’ लगता है जैसे अटल जी यह लेख आज की परिस्थिति में लिख रहे हैं।
लेकिन यह तो वह १९६३ में लिखा उन का लेख है। वह लिखते हैं, ‘आज की राजनीति विवेक नहीं, वाक्चातुर्य चाहती है; संयम नहीं, असहिष्णुता को प्रोत्साहन देती है; श्रेय नहीं, प्रेय के पीछे पागल है।’ सोचिए कि १९६३ में ही यह सब अटल जी देख रहे थे। आसान नहीं था यह देखना। वह लिख रहे थे, ‘मतभेद का समादर करना तो दूर रहा, उसे सहन करने की प्रवृत्ति भी विलुप्त होती जा रही है। आदर्शवाद का स्थान अवसरवाद ले रहा है।’
अटल जी इन सारी चुनौतियों को देखते हुए ही आगे बढ रहे थे। वह लिख रहे थे, ‘ पद और प्रतिष्ठा को कायम रखने के लिए जोड़-तोड़, सांठ-गांठ और ठकुरसुहाती आवश्यक है। निर्भीकता और स्प्ष्टवादिता खतरे से खाली नहीं है। आत्मा को कुचल कर ही आगे बढ़ा जा सकता है।’
तो क्या अटल जी अपनी आत्मा को कु्चलते हुए ही प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे?
इस प्रश्न की पड़ताल होना अभी बाकी है। देर-सबेर समय इस का भी हिसाब लिखेगा ही। पर अभी और तुरंत अभी तो अगर मुझ जैसों से पूछा जाए तो अटल जी जैसा राजनीति में पारंगत और निरापद भारतीय राजनीति में कोई दूसरा नहीं दिखता। जो काजल की कोठरी से निकल कर भी अपनी धवलता बरकरार रखे है।
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