आखिर क्यों एक रुपए की जिंदगी जीने को मजबूर है ये मासूम….
स्वाति थपलियाल
क्या कभी आपने देखी एक रुपए की जिंदगी…? पहले तो आप सोच रहे होगें आखिर क्या है ये एक रुपए जिंदगी…? तो हम आपको बताते है ये एक रुपए की जिंदगी वो जिंदगी है जो हम और आप जैसे लोग उन बेबस बच्चों को देते है जो असहाय है और भीख मांगने को मजबूर है। पर ऐसा आखिर क्यों…? और कब तक…?
क्या कभी आपने ऐसी जिंदगी देखी है….
क्या कभी आपने ऐसी जिंदगी देखी है? अगर नहीं तो आज हम आपको उन गरीब बेबस मासूमों की एक रुपए की जिंदगी से रूबरू करवाते है, जिन पर हर समय सबकी नज़र तो पड़ती है, लेकिन सब कुछ देखने के बाद भी उन्हें बस एक रूपए की जिंदगी से ही संतोष करना पड़ता है।
जी हां, आज हम बात उन बेबस गरीब असहाय मासूम बच्चों की कर रहे हैं, जिनके हाथों में किताबों की बजाय बचपन में ही कटोरी देखने को मिलती है। और ये सब देखने के बाद भी हम देखकर भी अनदेखा कर देते है। देश हो प्रदेश हो महानगर हो या फिर नगर ही क्यों ना हो हर जगह मासूम बस भीख मांगते ही नज़र आते है। शायद ही ऐसा दिन होता है जब इधर-उधर जाते हुए ऐसे बच्चों से आमना- सामना न होता हो। ये मासूम बच्चे सिर्फ एक रुपए के लिए हमारे आगे – पीछे घूमते है।
मन में बस एक ही सवाल बार-बार आता है…
ऐसे में मन में बस एक ही सवाल बार-बार आता है आखिर केंद्र व प्रदेश सरकरों द्वारा ऐसे बच्चों के संवर्धन और उत्थान के लिए चलाई जा रही तमाम योजनाओं में लाखों करोड़ो रुपए खर्च करने के बाद भी इन बच्चों की सुध क्यों नहीं ली जा रही है ? जो कि इस भीख प्रणाली में पूरी तरह आपने भविष्य को झंकझोर चुके हैं…क्या वाकई में धरातल पर इन सभी योजनाओं का सही तौर पर क्रियान्वयन हो रहा है या फिर ये सारी योजनाएं धरातल पर पूरी तरह से फ्लॉप हो चुकी हैं। या फिर इन सभी योजनाओं में व्याप्त भ्रष्टाचार उन्हें महज कागजी कार्यवाहियों तक ही सिमट कर रख चुका है।
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आखिर क्यों ये मासूम महज एक रूपए की…
सवाल का उठना भी लाजमी है और सवाल बड़ा भी है कि आखिर क्यों ये मासूम बच्चे महज एक रूपए की जिन्दगी जीने को मजबूर हैं..! जबकि बच्चों को तो देश का भविष्य कहा जाता हैं। ऐसे में जब देश के भविष्य कहे जाने वाले मासूम बच्चों की बाल्यावस्था में ही उन्हें किताबों से दूर रहकर कटोरी पकड़कर भीख मांगते देखा जाता रहेगा तो निश्चित ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि हमारा देश किस ओर जा रहा है। जबकि इसके उलट केन्द्र व राज्य सरकारों की तमाम योजनाओं में उन बच्चों के लिए काफी कुछ मौजूद है, फिर भी बावजूद इसके उनके संवर्धन और उत्थान के लिए बनी ये तमाम योजनाएं महज कागजों तक ही सिमट कर रह गयी है। फिर उन्हें महज एक रूपए की जिन्दगी जीने के लिए ही विवष होना पड़ता है, और ऐसे मासूम आपको दर-दर की ठोकरें खाते आसानी से इधर -उधर भटकते मिल जरूर जाएगें।
प्रदेश के साथ-साथ यही हाल राजधानी देहरादून का भी…
प्रदेश के साथ-साथ यही हाल राजधानी देहरादून का भी बना हुआ है। देहरादून के बाजारों, मन्दिर, मस्जिद, चर्च, रेलवे स्टेशन , बस स्टेशन सहित तमाम जगहों पर ऐसे बेबस मासूम बच्चों के हाथों में कटोरी व थाली आसानी से देखी जा सकती है, इतना ही नहीं ये बच्चे सुबह से लेकर देर रात तक अपने पेट भरने के लिए एक रूपए मांगते हए दिख जाते हैं। कई बार तो इनको एक रूपए आसानी से मिल जाता है , तो कई बार कड़ी मशक्कत के बाद भी इन्हें महज एक रूपए के लिए दर – दर की ठोकरें खाने को मजबूर होना पड़ता है।
बढ़ोत्तरी के ग्राफ को देखकर यही लगता है कि…
सरकार, सामाजिक संगठन सहित शासन प्रशासन तमाम तरह के योजनाओं के जरिए इन पर अंकुष लगाने की बात जरूर करते नजर आते है। लेकिन इनकी बढ़ोत्तरी के ग्राफ को देखकर यही लगता है कि शायद ही इनकी कोई सुध ली जाती है। अभी तक उन कारणों का भी सही ढंग से पता नहीं लगाया गया है, जिस वजह से ये बेबस मासूम बच्चे भीख मागने को मजबूर हैं?
आखिर में यही सवाल उठता है कि कब देश के भविष्य कहे जाने वाले मासूमों की सुध ली जाएगी? आखिर कब इनके भविष्य को सवार जाएगा? शायद ये तो आने वाला वक्त ही बताएगा।